।। ऊँ गं गणपतये नमः ।।

।। ऊँ वक्रतुण्ड़ महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरू मे देव, सर्व कार्येषु सर्वदा ।।

माँ दुर्गा के सब प्रकार के कल्याण के लिये मन्त्र

॥“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

।।ॐ।। ओम नम: शिवाय।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण , कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम , राम राम हरे हरे ||

।।ॐ।। ओम नम: शिवाय।

।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय। ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय।

Friday, 24 July 2015

यहाँ माता अपने मंदिर से बाहर निकल कर टहलती हैं


हमारे देश में कई प्रमुख धार्मिक स्थल हैं, जहां माता रानी चमत्कारी मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। माता की एक ऐसी ही चमत्कारी मूर्ति है मध्य प्रदेश के 'भादवा माता धाम' में। यह स्थान मध्य प्रदेश के नीमच से करीब 18 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर को 'भादवा माता धाम' कहा जाता है।

इस मंदिर का सबसे बड़ा चमत्कार यह माना जाता है कि यहां हर रात माता अपने मंदिर के गर्भ गृह से निकलकर मंदिर के प्रांगण में टहलती हैं। टहलते समय माता की जिस पर भी दया दृष्टी पड़ जाती है वह सदा के लिए रोग मुक्त और सुखी हो जाता है। बहुत से भक्त इस स्थान से रोग मुक्त होकर अपने घर खुशी-खुशी वापस जाते हैं।

माता के इस चमत्कार के कारण यहां पूरे साल लकवा, कोढ़ और नेत्रहीनता से पीड़ित भक्तों का आना-जाना लगा रहता है। भादवा माता मंदिर के प्रांगण में एक प्राचीन बावड़ी है। कहा जाता है इस बावड़ी के विषय में मान्यता है कि भक्तों को रोग मुक्त करने के लिए माता ने यहां जमीन से जल निकाला था। इस बावड़ी पर माता की असीम कृपा है। लोग बताते हैं मंदिर का जल अमृत तुल्य है। माता ने कहा है कि जो भी इस बावड़ी के जल से स्नान करेगा, वह सदा के लिए रोग मुक्त हो जाएगा।

From: punjabkesari

Sunday, 19 July 2015

माँ दुर्गा के 108 नाम


1-सती
2-वैष्णवी
3-चामुंडा
4-साध्वी
5-वाराही
6-भवानी
7-भवप्रीता
8-लक्ष्मी
9-भवमोचनी
10-पुरूषाकृति
11-आर्या
12-विमला
13-दुर्गा
14-उत्कर्षिणी
15-जया
16-ज्ञाना
17-आद्या
18-शूलधारिणी
19-बुद्धिदा
20-पिनाकधारिणी
21-क्रिया
22-त्रिनेत्रा
23-नित्या
24-चंद्रघंटा
25-सर्ववाहनवाहना
26-बहुला
27-चित्रा
28-निशुम्भशुम्भहननी
29-मन:
30-महिषासुरमर्दिनि
31-शक्ति
32-बहुलप्रेमा
33-महातपा
34-मधुर्कटभहंत्री
35-अहंकारा
36-चण्डमुण्डविनाशिनि
37-चित्तरूपा
38-सर्वअसुरविनाशिनि
39-चिता
40-सर्वदानघातिनी
41-चिति
42-सर्वशास्त्रमयी
43-सर्वमंत्रमयी
44-सत्ता
45-सर्वअस्त्रधारिणी
46-सत्यानंदस्वरुपिणी
47-अनेकशस्त्रहस्ता
48-अनन्ता
49-अनेकास्त्रधारिणी
50-भाविनि
51-कुमारी
52-भाव्या
53-एककन्या
54-भव्या
55-कैशोरी
56-अभव्या
57-युवति
58-सदागति
59-यति:
60-शाँभवि
61-अप्रौढ़ा
62-देव माता
63-प्रौढा़
64-चिंता
65-वृद्धमाता
66-रत्नप्रिया
67-बलप्रदा
68-सर्वविद्या
69-महोदरी
70-दक्षकन्या
71-मुक्तकेशी
72-दक्षयज्ञविनाशिनी
73-घोररूपा
74-अपर्णा
75-महाबला
76-अनेकवर्णा
77-अग्निज्वाला
78-पाटला
79-रुद्रमुखी
80-पाटलावती
81-कालरात्रि
82-पट्टाम्बरपरिधाना
83-तपस्विनी
84-कलमंजिररंजिनी
85-नारायणी
86-अमेय विक्रमा
87-भद्रकाली
88-क्रूरा
89-विष्णुमाया
90-सुंदरी
91-जलोदरी
92-सुरासुंदरी
93-शिवदूती
94-वनदुर्गा
95-कराली
96मांतंगी
97-अनंता
98-मतंगमुनिपूजिता
99-परमेश्वरी
100-ब्राह्मी
101-कात्यायनी
102-माहेश्वरी
103-सावित्री
104-ऎंद्री
105-प्रत्यक्षा
106-कौमारी
107-ब्रह्मवादिनी
108-बुद्धिबुद्ध

Saturday, 18 July 2015

माँ दुर्गा की आरती

Durga maa ki aarti

माँ दुर्गा की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी । तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को । उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै । रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी । सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती । कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे । मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी । आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैंरू ।बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता । भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥

ॐ जय अंबे गौरी…


भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी । मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती । श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥

ॐ जय अंबे गौरी…

मां सिद्धिदात्री ( नवीं शक्ति )



नौवां दिन सिद्धिदात्री नामक दुर्गा के लिए

मां दुर्गा की नवीं शक्ति को सिद्धिदात्री कहते हैं। जैसा नाम से प्रकट है ये सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। नव-दुर्गाओं में मां सिद्धिदात्री अन्तिम हैं। इनकी उपासना के बाद भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

देवी के लिए बनाए नैवेद्य की थाली में भोग का समान रखकर निम्न रूप से प्रार्थना करनी चाहिए।

सिद्धगंधर्वयक्षाद्यैरसुरैररमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति सिद्धिदात्री हैं, नवरात्र-पूजन के नौवें दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा का विधान है. नवमी के दिन सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है. दुर्गा मईया जगत के कल्याण हेतु नौ रूपों में प्रकट हुई और इन रूपों में अंतिम रूप है देवी सिद्धिदात्री का. देवी प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं. देवी सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है, देवी की चार भुजाएं हैं दायीं भुजा में माता ने चक्र और गदा धारण किया है, मां बांयी भुजा में शंख और कमल का फूल है.

मां सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान रहती हैं, मां की सवारी सिंह हैं. देवी ने सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है. देवतागण, ऋषि-मुनि, असुर, नाग, मनुष्य सभी मां के भक्त हैं. देवी जी की भक्ति जो भी हृदय से करता है मां उसी पर अपना स्नेह लुटाती हैं.

सिद्धि के प्रकार :

अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां हैं जिनका मार्कण्डेय पुराण में उल्लेख किया गया है .

देवी सिद्धिदात्री की ध्यान :

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

सिद्धिदात्री की स्तोत्र पाठ :

कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भव सागर तारिणी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिध्दिदात्री नमोअस्तुते॥

महागौरी (आठवीं शक्ति)


मां दुर्गा की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। मां के इस स्वरूप का ध्यान हमें आस्था, श्रद्धा व विश्वास रूपी श्वेत प्रकाश को अपने जीवन में धारण करते हुए अलौकिक कांति व तेज से सुसंपन्न होने का संदेश प्रदान करता है। मां महागौरी की अवस्था आठ वर्ष की मानी गई है-अष्टवर्षा मवेद गौरी।
इनका वर्ण शंख, चंद्र व कुंद के फूल के समान उज्ज्वल है। इनकी चार भुजाएं हैं। मां वृषभवाहिनी व शांतिस्वरूपा हैं। नारद पंचरात्र के अनुसार, शंकर जी की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या करते हुए मां का शरीर धूल-मिट्टी से ढंककर मलिन हो गया था। जब शंकर जी ने गंगाजल से इनके शरीर को धोया, तब गौरी जी का शरीर विद्युत के समान गौर हो गया। तब से ये देवी महागौरी के नाम से विख्यात हुई। उनका ध्यान जीवनपथ में आने वाले अज्ञानजन्य दु:खों व परिस्थितियों का समूल नाश करके हमें भयमुक्त करता है। देवी दुर्गा के नौ रूपों में महागौरी आठवीं शक्ति स्वरूपा हैं। महागौरी आदि शक्ति हैं इनके तेज से संपूर्ण विश्व प्रकाश-मान होता है इनकी शक्ति अमोघ फलदायिनी है।
दुर्गा सप्तशती में शुभ निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवतागण कर रहे थे वह महागौरी हैं। देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ जिसने शुम्भ निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया। यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं।
महागौरी की चार भुजाएं हैं उनकी दायीं भुजा अभय मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है। बायीं भुजा में डमरू डम डम बज रही है और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान देती हैं। जो स्त्री इस देवी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं। मां अपने भक्तों को अक्षय आनंद और तेज प्रदान करती हैं।
ध्यान मंत्र
श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेतांबर धरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा ॥

मां कालरात्रि सातवीं शक्ति


नाम से अभिव्यक्त होता है कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं
कालरात्रि।एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥
काल से भी रक्षा करने वाली यह शक्ति है। इस देवी के तीन नेत्र हैं। ये तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती है। ये गर्दभ की सवारी करती हैं।ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा निडर, निर्भय रहो। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है।इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए ये शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।ये ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर तरह के भय से मुक्त हो जाता है।कालरात्रि की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण से ही भाग जाते हैं।
मां दुर्गा जी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश्य गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निरूसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वांस प्रश्वांस से अग्नि की भंयकर ज्वालाएं निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ है। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में खड्ग तथा नीचे वाले हाथ में कांटा है। मां का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका नाम शुभंकरी भी है। अतरू इनसे किसी प्रकार भक्तों भयभीत होने अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। दुर्गा पूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। इनकी उपासना से उपासक के समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है।
देवी का यह सातवां स्वरूप देखने में भयानक है, लेकिन सदैव शुभ फल देने वाला होता है। इन्हें शुभंकरीश् भी कहा जाता है। कालरात्रिश् केवल शत्रु एवं दुष्टों का संहार करती हैं। यह काले रंग-रूप वाली, केशों को फैलाकर रखने वाली और चार भुजाओं वाली दुर्गा हैं। यह वर्ण और वेश में अर्द्धनारीश्वर शिव की तांडव मुद्रा में नजर आती हैं। इनकी आंखों से अग्नि की वर्षा होती है। एक हाथ से शत्रुओं की गर्दन पकड़कर दूसरे हाथ में खड्ग-तलवार से उनका नाश करने वाली कालरात्रि विकट रूप में विराजमान हैं। इनकी सवारी गधा है, जो समस्त जीव-जंतुओं में सबसे अधिक परिश्रमी माना गया है। देवी कालरात्रि का महत्व-
दुर्गा सप्तशती के प्रधानिक रहस्य में बताया गया है कि जब देवी ने इस सृष्टि का निर्माण शुरू किया और ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का प्रकटीकरण हुआ उससे पहले देवी ने अपने स्वरूप से तीन महादेवीयों को उत्पन्न किया। सर्वेश्वरी महालक्ष्मी ने ब्रह्माण्ड को अंधकारमय और तामसी गुणों से भरा हुआ देखकर सबसे पहले तमसी रूप में जिस देवी को उत्पन्न किया वह देवी ही कालरात्रि हैं। देवी कालरात्रि ही अपने गुण और कर्मो द्वारा महामाया, महामारी, महाकाली, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, एवं दुरत्यया कहलाती हैं।

माता कात्यायनी (छठें रूप)

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥

भगवती दुर्गा के छठें रूप का नाम कात्यायनी है। महर्षि कात्यायन के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थी। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन उन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य एवं दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला, और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला वरमुद्रा में, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प तथा नीचे वाले हाथ में तलवार है। इनका वाहन सिंह है। दुर्गा पूजा के छठवें दिन इनके इसी स्वरुप की उपासना की जाती है।

माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्यों को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फ़लों की प्राप्ति हो जाती है।

नवरात्र के पावन समय में छठवें दिन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष को प्रदान करने वाली भगवती कात्यायनी की पूजा वंदना का विधान है। साधक , आराधक जन इस दिन मां का स्मरण करते हुए अपने मन को आज्ञा चक्र में समाहित करते हैं। योग साधना में आज्ञा चक्र का बडा महत्व होता है। मां की षष्ठम् शक्ति कात्यायनी नाम का रहस्य है। एक कत नाम के ऋषि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए इन्हीं कात्य गोत्र में महर्षि कात्यायन हुए उनके कठोर तपस्या के फलस्वरूप उनकी इच्छानुसार भगवती ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया।

भगवती कात्यायनी ने शुक्लपक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी तक ऋषि कात्यायन की पूजा ग्रहण की और महिषासुर का वध किया था। इसी कारण छठी देवी का नाम कात्यायनी पडा। मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत विशाल एवं दिव्य है। उनकी चार भुजाएं हैं। एक हाथ वर मुद्रा में, दूसरा हाथ अभय मुद्रा में, तीसरे हाथ में सुंदर कमल पुष्प और चौथे हाथ में खड्ग धारण किए हुए हैं। मां सिंह पर सवार हैं। जो मनुष्य मन, कर्म व वचन से मां की उपासना करते हैं उन्हें मां धन-धान्य से परिपूर्ण एवं भयमुक्त करती हैं।

नवरात्र का छठा दिन भगवती कात्यायनी की आराधना का दिन है। श्रद्धालु भक्त व साधक अनेक प्रकार से भगवती की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए व्रत-अनुष्ठान व साधना करते हैं। कुंडलिनी जागरण के साधक इस दिन आज्ञा चक्र को जाग्रत करने की साधना करते हैं। वे गुरु कृपा से प्राप्त ज्ञान विधि का प्रयोग कर कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर शास्त्रोक्त फल प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं। जगदम्बा भगवती के उपासक श्रद्धा भाव से उनके कात्यायनी स्वरूप की पूजा कर उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को कृतार्थ करते हैं।

स्कन्दमाता (पाँचवाँ रूप)

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥


भगवती दुर्गा के पाँचवे स्वरुप को स्कन्दमाता के रुप में माना जाता है। भगवान स्कन्द अर्थात् कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्द माता कहते हैं। स्कन्दमातृस्वरुपिणी देवी की चार भुजाएँ हैं। ये दाहिनी तरफ़ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं। बायीं तरफ़ की ऊपर वाली भुजा वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है। उसमें भी कमल-पुष्प ली हुई हैं। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है। नवरात्रे - पूजन के पाँचवे दिन इन्ही माता की उपासना की जाती है। स्कन्द माता की उपासना से बालरुप स्कन्द भगवान की उपासना स्वयं हो जाती है।
माँ स्कन्द माता की उपासना से उपासक की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

नवरात्र के पुण्य पर्व पर पांचवें दिन मां स्कंदमाता की पूजा, अर्चना एवं साधना का विधान वर्णित है। मां के पांचवें स्वरूप को स्कंद माता के नाम से जाना जाता है। पांचवें दिन की पूजा साधना में साधक अपने मन-मस्तिष्क का विशुद्ध चक्र में स्थित करते हैं। स्कंद माता स्वरूपिणी भगवती की चार भुजाएं हैं। सिंहारूढा मां पूर्णत: शुभ हैं। साधक मां की आराधना में निरत रहकर निर्मल चैतन्य रूप की ओर अग्रसर होता है। उसका मन भौतिक काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) से मुक्ति प्राप्त करता है तथा पद्मासना मां के श्री चरण कमलों में समाहित हो जाता है। मां की उपासना से मन की सारी कुण्ठा जीवन-कलह और द्वेष भाव समाप्त हो जाता है। मृत्यु लोक में ही स्वर्ग की भांति परम शांति एवं सुख का अनुभव प्राप्त होता है। साधना के पूर्ण होने पर मोक्ष का मार्ग स्वत: ही खुल जाता है।

  मां की उपासना के साथ ही भगवान स्कंद की उपासना स्वयं ही पूर्ण हो जाती है। क्योंकि भगवान बालस्वरूप में सदा ही अपनी मां की गोद में विराजमान रहते हैं। भवसागर के दु:खों से छुटकारा पाने के लिए इससे दूसरा सुलभ साधन कोई नहीं है।
  नवरात्र का पांचवां दिन भगवती स्कन्दमाता की आराधना का दिन है। श्रद्धालु भक्त व साधक अनेक प्रकार से भगवती की अनुकंपा प्राप्त करने के लिए व्रत-अनुष्ठान व साधना करते हैं। कुंडलिनी जागरण के साधक इस दिन विशुद्ध चक्र को जाग्रत करने की साधना करते हैं। वे गुरु कृपा से प्राप्त ज्ञान विधि का प्रयोग कर कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर शास्त्रोक्त फल प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं। जगदम्बा भगवती के उपासक श्रद्धा भाव से उनके स्कंदमाता स्वरूप की पूजा कर उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को कृतार्थ करते हैं।
  विशुद्ध चक्र पर शनि ग्रह का आधिपत्य होता है। इसका लोक - जन लोक, मातृ देवी - कौमारी, देवता - सदाशिव (व्योमनेश्वर और व्योमनेश्वरी), तन्मात्रा - ध्वनि, तत्व - आकाश, इसका स्थान कण्ठ में होता है और अधिष्ठात्री देवी - शाकिनी/गौरी (वाणी) है। प्रभाव - यह वाणी का क्षेत्र है इसलिए यहाँ सबसे ज्यादा ऊर्जा की क्षति होती है।

मां कूष्मांडा (चौथा-रूप)


नवरात्र के चौथे दिन आदिशक्ति मां दुर्गा का चतुर्थ रूप
श्री कूष्मांडा की पूजा की जाती है. अपने उदर से ब्रह्मांड
को उत्पन्न करने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरुप
को कूष्मांडा के नाम से पुकारा जाता है. दुर्गा पूजा के
चौथे दिन भगवती श्री कूष्मांडा के पूजन से भक्त
को अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती है.
अपने दैवीय स्वरुप में मां कूष्मांडा बाघ पर सवार हैं, इनके
मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट है और अष्टभुजाधारी होने के
कारण इनके हाथों में कमल, सुदर्शन, चक्र, गदा, धनुष-बाण,
अक्षतमाला, कमंडल और कलश सुशोभित हैं.
भगवती कूष्मांडा की अराधना से श्रद्धालु रोग, शोक और
विनाश से मुक्त होकर आयु, यश, बल और बुद्धि को प्राप्त
करता है. श्रद्धावान भक्तों में मान्यता है कि यदि कोई
सच्चे मन से माता के शरण को ग्रहण करता है
तो मां कूष्मांडा उसे आधियों-व्याधियों से विमुक्त करके
सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है. मान्यतानुसार
नवरात्र के चौथे दिन मां कूष्मांडा के पूजन के बाद
भक्तों को तेजस्वी महिलाओं को बुलाकर उन्हें भोजन
कराना चाहिए और भेंट स्वरुप फल और सौभाग्य के सामान
देना चाहिए. इससे माता भक्त पर प्रसन्न रहती है और हर
समय उसकी सहायता करती है.

माँ चंद्रघंटा की कथा


माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है।
चंद्रघंटा : मां दुर्गा का तीसरा स्वरूप
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है। आइए जानते हैं तीसरी देवी चंद्रघंटा के बारे में :-
नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं।
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति हैं चंद्रघंटा। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा-आराधना की जाती है। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं।
सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए।
इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। इसलिए हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध-पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। यह देवी कल्याणकारी है।

पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥

माँ ब्रह्मचारिणी की कथा


भगवती माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा स्वरुप ब्रह्मचारिणी का है ! यंहा 'ब्रह्म ' शब्द का अर्थ तपस्या है ! ब्रह्मचारिणी - तप का आचरण करने वाली - वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म - वेद, तत्व और तप ' ब्रह्म शब्द के अर्थ है ! ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरुप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है ! इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमण्डलु रहता है ! अपने पूर्वजन्म में ये जब हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी तब नारद के उपदेश से इन्होने भगवान् शंकर जी को पति - रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी ! इस दुस्कर तपस्या के कारण यह तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से पूजित हुई ! एक हज़ार वर्ष तक उन्होंने केवल फल मूल खाकर व्यतीत किये थे ! सौ वर्षो तक केवल शाक पर निर्वाह किया था ! कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट सहे ! इस कठिन तपस्या के पश्चात् तीन हज़ार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रो को खाकर वह भगवान् शंकर की आराधना करती रही ! इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रो को भी खाना छोड़ दिया ! कई हज़ार वर्षो तक वह निर्जल और निराहार तपस्या करती रही ! पत्तों को खाना छोड़ने के कारण उनका एक नाम अपर्णा भी पड़ गया ! कई हज़ार वर्षो की इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का वह पूर्वजन्म का शरीर एक दम क्षीण हो गया ! उनकी यह दश देखकर उनकी माँ मैना अत्यंत दुखी हो उठी ! उन्होंने उस कठिन तपस्या से विरत करने के लिए आवाज दी - उमा नहीं , अब नहीं ! तब से देवी ब्रह्मचारिणी का नाम उमा भी पड़ गया ! उनकी इस तपस्या से तीनो लोको में हाहाकार मच गया ! देवता , ऋषि , मुनि , सिद्ध्गन सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूत पूर्व पुन्यकृत बताते हुए उनकी सराहना तथा गुणगान करने लगे ! अंत में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें संबोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा - हे देवी आज तक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी ! ऐसी तपस्या तुम्ही से संभव थी ! तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चारों दिशाओं में जय जयकार हो रही है ! तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी ! भगवान् शिव जी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे ! अब तुम अपनी तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ ! शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हे बुलाने आ रहे हैं ! माँ दुर्गा जी का यह दूसरा स्वरुप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है ! इनकी पूजा - उपासना से मनुष्य में तप , त्याग , वैराग्य , सदाचार , संयम , पर उपकार की वृद्धि होती हैं ! जीवन के कठिन समय में भी विचलित नहीं होते ! माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्ध और विजय की प्राप्ति होती हैं ! माँ भगवती देवी ब्रह्मचारिणी माता के श्री चरणों में सत सत नमन !

माँ शैलपुत्री

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् ।
वृषारुढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ।।

माँ दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण इन्हें शैल पुत्री कहा गया। भगवती का वाहन बैल है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। अपने पूर्व जन्म में ये सती नाम से प्रजापति दक्ष की पुत्री थी । इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। पूर्वजन्म की भांति इस जन्म में भी यह भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्रे - पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा व उपासना की जाती है।
सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए नवरात्र के पावन पर्व में पूजी जाने वाली नौ दुर्गाओं में सर्व प्रथम भगवती शैलपुत्री का नाम आता है। पर्व के पहले दिन बैल पर सवार भगवती मां के पूजन-अर्चना का विधान है। मां के दाहिने हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्वजन्म में ये दक्ष प्रजापति की कन्या के रूप में पैदा हुई थीं। उस समय इनका नाम सती रखा गया। इनका विवाह शंकर जी से हुआ था। शैलपुत्री देवी समस्त शक्तियों की स्वामिनी हैं। योगी और साधकजन नवरात्र के पहले दिन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं और योग साधना का यहीं से प्रारंभ होना कहा गया है।

Friday, 17 July 2015

ज्वाला देवी की कथा


ज्वाला देवी का यह स्थान धूमा देवी का स्थान भी माना जाता हैं ! इसकी मान्यता ५१ शक्ति पीठों में हैं ! कहा जाता हैं कि यहाँ पर भगवती सती की जिह्वा गिरी थी!



इस तीर्थ में देवी के दर्शन 'ज्योति' के रूप में किये जाते हैं! पर्वत की चट्टान से नौ विभिन्न स्थानों पर ज्योति बिना किसी ईधन के स्वतः प्रज्ज्वलित होती हैं!
इसी कारण देवी को ज्वाला देवी के नाम से पुकारा जाता हैं और यह स्थान ज्वाला माई नाम से प्रसिद्ध हैं!

ज्वाला देवी का यह स्थान हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित हैं! पंजाब राज्य में जिला होशियारपुर गोपी पुरा डेरा नामक स्थान से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर ज्वाला जी का मंदिर हैं! पठानकोट से कांगड़ा होते हुए भी यात्री ज्वालामुखी पहुँच सकते हैं ! कांगड़ा से ज्वालामुखी का लगभग ३ घंटे का बस मार्ग हैं! यहाँ से हर आधे घंटे में बसें चलती हैं!

श्री ज्वालादेवी मंदिर में देवी के दर्शन नौ ज्योतियों के रूप में होते हैं! यह ज्योतियाँ कभी कम कभी अधिक के रूप में भी विद्यमान रहती हैं!
भाव इस प्रकार माना जाता हैं कि माँ दुर्गा के नव रूप में जो नव दुर्गा कहे गए हैं वो ही चौदह भुवन हैं और सृष्टि की रचना करने वाली हैं! मंदिर के द्वार के सामने चाँदी के आले में जो मुख्य ज्योति सुशोभित हैं उसको महाकाली का रूप कहा जाता हैं ! यह पूर्ण ब्रहम - ज्योति तथा भक्ति और मुक्ति को देने वाली हैं ! ज्योतियों के पवित्र नाम व् दर्शन इस प्रकार हैं

पवित्र ज्योति दर्शन

१ चाँदी के आले में सुशोभित मुख्य ज्योति का पवित्र नाम महाकाली हैं जो मुक्ति भुक्ति देने वाली हैं!

२ इसके नीचे जो ज्योति सुशोभित हैं वह महा माया 'अन्न पूर्णा ' की हैं जो माता भंडार भरने वाली हैं!

३ तीसरी ज्योति शत्रुओं का विनाश करने वाली माता चंडी की हैं !

४  समस्त व्याधियों का नाश करने वाली यह ज्योति हिंगलाज भवानी की हैं!

५ पंचम ज्योति विन्ध्य्वासिनी हैं , जो शोक से छुटकारा देती हैं!

६ छठी ज्योति महालक्ष्मी माता की हैं जो धन - धन्य देने वाली हैं ! यह कुण्ड में विराजमान हैं!

७ यह ज्योति विद्यादात्री माता शारद की हैं जो कुण्ड में सुशोभित हैं!

८ यह संतान सुख देने वाली अम्बिका माई की ज्योति हैं जो कुण्ड में दर्शन दे रही हैं !

९ यह ज्योति अंजना माता की हाँ जो यहीं कुण्ड में दर्शन दे रही हैं ! यह भक्तों को आयु व् सुख प्रदान करती हैं !

माँ चिंतपूर्णी शक्तिपीठ

चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश मे स्थित है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलो में से एक है।

 देवी की उत्पत्ति की कथा
दूर्गा सप्‍तशती और देवी महात्यमय के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच में सौ वर्षों तक युद्ध चला था जिसमें असुरो की विजय हुई। असुरो का राजा महिसासुर स्वर्ग का राजा बन गया और देवता सामान्य मनुष्यों कि भांति धरती पर विचरन करने लगे। देवताओं के ऊपर असुरों द्वारा काफी अत्याचार किया गया। देवताओं ने इस विषय पर आपस में विचार किया और इस कष्‍ट के निवारण के लिए वह भगवान विष्णु के पास गये। भगवान विष्णु ने उन्हें देवी की आराधना करने को कहा। तब‍ देवताओं ने उनसे पूछा कि वो कौन देवी हैं जो हमारे कष्टो का निवारण करेंगी। इसी योजना के फलस्वरूप त्रिदेवो ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों के अंदर से एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ जो देखते ही देखते एक स्त्री के रूप में परिवर्तित हो गया। इस देवी को सभी देवी-देवताओं ने कुछ-न-कुछ भेट स्वरूप प् रदान किया। भगवान शंकर ने सिंह, भगवान विष्णु ने कमल, इंद्र ने घंटा, समुंद्र ने कभी न मैली होने वाली माला प्रदान की। इसके बाद सभी देवताओं ने देवी की आराधना की ताकि देवी प्रसन्न हो और उनके कष्टो का निवारण हो सके। और हुआ भी ऐसा ही। देवी ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान दे दिया और कहा मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करूंगी। इसी के फलस्वरूप देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। जिसमें देवी की विजय हुई और तभी से देवी का नाम महिषासुर मर्दनी पड़ गया। पौराणिक कथा के अनुसार
► चिंतपूर्णी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों मे से एक है। पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। जिन सभी की उत्पत्ती कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिर थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नही किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नही समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी। वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयीं। जहां शिव का काफी अपमान किया गया। इसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गयी। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्‍ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्‍ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर के अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया। जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि चिंतपूर्णी मे माता सती के चरण गिरे थे। इन्‍हें छिनमष्तिका देवी भी कहा जाता है। चिंतपूर्णी देवी मंदिर के चारो और भगवान शंकर के मंदिर है। .चिंतपूर्णी गांव जिला ऊना हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चिंतपूर्णी मंदिर सोला सिग्ही श्रेणी की पहाड़ी पर स्थित है।